गलियों की ये ख़ामोशी मुझे अहसास दिलाती हैं
कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं
वही गलिया जहाँ रोज चूड़ी वाला आवाज़ लगता हैं
वही घर जहाँ पडोसी से आज भी दही उधार लिया जाता हैं
वही नुक्कड़ जहाँ में रोज चाट खाने जाता था
वही कोना जहाँ पान खा के हम बातें बनाया करते थे
वहीं बातें मुझे सता के ये याद दिलाती हैं
कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं
रिक्शे वाले से १ रुपए के लिए बहस जहाँ आज भी होती हैं
गली के मंदिर में जहाँ आरती रोज सुबह शाम होती हैं
दिवाली पे जहाँ हर दिल में रौनक होती हैं
होली के रंग जहाँ हर गाल पे सज जाते हैं
बेरंग चेहरे मुझे बोलते नज़र आते हैं
कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं
लक्की,२६ जनवरी २०११
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