Tuesday, January 25, 2011

कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं

गलियों की ये ख़ामोशी मुझे अहसास दिलाती हैं

कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं

वही गलिया जहाँ रोज चूड़ी वाला आवाज़ लगता हैं

वही घर जहाँ पडोसी से आज भी दही उधार लिया जाता हैं

वही नुक्कड़ जहाँ में रोज चाट खाने जाता था

वही कोना जहाँ पान खा के हम बातें बनाया करते थे

वहीं बातें मुझे सता के ये याद दिलाती हैं

कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं

रिक्शे वाले से १ रुपए के लिए बहस जहाँ आज भी होती हैं

गली के मंदिर में जहाँ आरती रोज सुबह शाम होती हैं

दिवाली पे जहाँ हर दिल में रौनक होती हैं

होली के रंग जहाँ हर गाल पे सज जाते हैं

बेरंग चेहरे मुझे बोलते नज़र आते हैं

कि मेरे पैरों कि ये ज़मीन मेरी नहीं

                        लक्की,२६ जनवरी २०११

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